भारत में महिला सशक्तिकरण हेतु प्रयास
डा रमेश प्रसाद द्विवेदी
निदेशक व पोस्ट डाक्टोरल फैलो श्रीनिवास बहुउद्देशीय संस्था नयनतारा 81 फूलमती ले आउट (जयवंत नगर एन आय टी गार्डेन के पास नागपुर-440027 महाराष्ट्र
प्रस्तावना
महिला सशक्तिकरण व विकास की स्थिति पर विवेचन से पूर्व हमारे मस्तिष्क में विविध प्रकार के प्रष्न उत्पन्न होते हैं जैसे-भारत में महिला सषक्तिकरणव विकास की स्थिति के अध्ययन की क्या आवष्यकता है? भारतीय महिलाओं की स्थिति के सम्बन्ध में प्रचलित भ्रान्त धारणाएँ क्या है? क्या धारणाएँ भ्रान्त हैं या इनकी अपनी सत्यता भी है? यदि भारतीय समाज में प्रचलित धारणाएँ गलत है, तो समाज में उनकी वास्तविक स्थिति क्या है? इन सभी प्रष्नों का उत्तर देने के लिए हमें भारतीय इतिहास का अध्ययन करना होगा, इसी के माध्यम से भारतवर्ष में महिलाओं की स्थिति का इस मूल्यांकन किया जा सकेगा। आजादी के 67 वर्ष पूरे हो गए हैं लेकिन इन 68 वर्षों में महिलाओं में साक्षरता की दर में भले वृद्धि हो गई हो, उन्हें आर्थिक स्वांवलम्बन भी प्राप्त हो गया हो, किन्तु समाज आज भी उन्हंे दोयम दर्जे की नजर से देखता है। क्या कोई समाज जहाँ
पुरूष और महिला मंे भेदभाव किया जाता है, प्रगति कर सकता है? कदापि नहीं। भारतीय संविधान में उल्लेख किया गया है कि देश में जाति धर्म, लिंग, साम्प्रदाय, आदि के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा, किन्तु क्या ऐसा किया जा रहा है? यही एक सच्ची हकीकत है, इसलिए महिलाओं के सषक्तिकरण व विकास की आवष्यकता है।
महिला सशक्तिकरण का अर्थ:
अत्यन्त सरल शब्दों में महिला सशक्तिकरण का अर्थ है- महिलाओं को शक्तिशाली बनाना। इसका तात्पर्य यह है कि महिलाएँ समाज में शक्तिहीन है इसलिए इन्हें शक्तिशाली बनाना। भारतीय संदर्भ में महिलाओं को पुरूषों की बराबरी पर लाना। महिला सशक्तिकरण से आशय उन सामान्य अर्थों से लगाया जाता है जो अपनी क्षमताओं और शक्तियों का पूर्णरुप से उपयोग कर सके जिससे वे स्वयं निर्णय लेने की स्थिति मंे आ जाए, यह स्थिति प्रत्येक क्षेत्र में हो सकती हैं। सामान्यता आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में वृद्धि आसानी से आ सकती है। महिला समुदाय को एक अर्थ में व्याखायित करना आसान नहीं हैं, क्योंकि यह समुदाय अपने आप में कई समुदायों को समाहित किये हुए है। महिला सशक्तिकरण शब्द का प्रयोग सरकारी तन्त्र में हाल में ही शुरु हुआ है। इस प्रकार सरकारी तंत्र की सोच पहले महिला विकास फिर महिला सहभागिता इसके बाद महिला सशक्तिकरण का समय आया। महिला सशक्तिकरण का सही अर्थ तभी सम्भव हो पायेगा, जब वह सम्मान खोये बगैर जिस लक्ष्य को पाना चाहती हो, उसका प्रयास कर सकती है और अपने गंतव्य तक पहुंच सकती है। उसे संचार का हक हो, सुरक्षा मिले, आर्थिक निर्भरता समाप्त करने के पर्याप्त साधन उपलब्ध हो, इसकी इच्छा-अनिच्छा का ध्यान रखा जाए, समाज व राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान हो, उसे अपनी योग्यता बढाने का अवसर मिले, धन सम्पत्ति में हक मिले, देश की प्रगति तथा देश का गौरव बढाने में सहयोग का पूरा अवसर हो। महिला सषक्तिकरण एवं विकास हेतु अन्तरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर विविध प्रयास किये गये है जो इस प्रकार हैः-
1. अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर महिला सषक्तिकरण हेतु प्रयास:
;द्ध अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष एवं महिलाएं:
संसार भर की महिलाओं की स्थिति को सामाजिक प्रतिष्ठा प्रदान करने के उद्देष्य से संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने वर्ष 1975 को अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किया था। मैक्सिको में महिला वर्ष का आरम्भ करते हुए राष्ट्र संघ के महासचिव डाॅ. कुर्त वाल्दहाइम ने कहा था, ‘महिलाओं के प्रति भेदभाव की नीति उतनी ही गम्भीर है, जितनी कि अनाज की कमी और बढ़ती हुई जनसंख्या की। समानता का संचार, विकास में महिलाओं की साझेदारी एवं विष्व-शान्ति में महिलाओं का योगदान आदि इस घोषणा का प्रमुख उद्देष्य था। 1975 में देष-विदेष के विभिन्न भागों में प्रतियोगिताएं, भाषण, सांस्कृतिक कार्यक्रम, सेमीनार, प्रभात फेरी और नारी-षक्ति जागरण के कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। यद्यपि ये समस्त कार्यक्रम नगरीय अंचलों तक सिमट कर रह गये हैं और स्त्रियों की स्थिति भी आज कुछ खास अच्छी नहीं है, जहां पहले थीं आज षिक्षा के सर्वव्यापीकरण और सरकारी योजनाओं के फलस्वरूप अब इसका प्रभाव भी पड़ रहा है और महिलाएं भौतिक क्षेत्र में प्रगति कर रही है, लेकिन सामाजिक एवं मानसिक रूप से अभी भी वहीं है।
;इद्ध सीडाॅ:
संयुक्त राष्ट्र संघ की महिलाओं के विरूद्ध सभी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करने के लिए अभिसमय समिति ने अपने सामान्य संतुस्ति संख्या ग्प्प् 1989 में षिफारिस की है। सीडाॅ संधि जेण्डर समानता की सूत्रधार के रूप में अंतर्राष्ट्रीय कानून के क्षेत्र में आपनी साख बना चुकी है। इस संधि की प्रस्तवना में स्वीकार किया गया है कि ‘‘आज दुनिया में महिला कर्मचारियों के विरूद्ध व्यापक भेदभाव जारी है।’’ महिलाओं के उत्पीड़न से उनकी गरिमा की भावना और गरिमा के साथ आजीविका अर्जित करने के अधिकार पर कुठाराघात होता है और यह उनके मूलभूत अधिकारों तथा उनके मूल मानवीय अधिकारों के प्रतिकूल है। 1979 में पेइचिंग में स्वीकृत महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के विभेद के उन्मूलन संबंधी अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय (सेडा) ने भी, जिसका भारत ने समर्थन किया है, महिलाओं के समता के अधिकार को मान्यता दी है और इसमें कहा गया है महिलाओं का उत्पीड़न नहीं किया जाएगा क्योंकि ऐसे उत्पीड़न से राज्य का माहौल दूषित होता है। इस प्रकार का सामाजिक, लिंग आधारित भेदभाव, समानता एवं मानवीय गरिमा के मनवाधिकारों का खुला उलंघन है। महिला समानता के सिद्धांत की पुरजोर पैरवी करते हुए यह संधि सदस्य राष्ट्रों का आह्वान करती है कि वे अपने देष की नीतियों, कानूनों और हर संभव उपायों के माध्यम से ऐसे सतत प्रयास करें, जिससे महिलाओं का समग्र विकास एवं उत्थान सुनिष्चित किया जा सके और महिलाएं भी अपने मानवाधिकारों व स्वतंत्रताओं को अमल में लाकर पुरूषों के समक्ष ही उनका आनंद उठा सकें।
;बद्ध अन्तरराष्ट्रीय विष्व महिला सम्मेलन:
कई वर्षों के बाद आज वैष्विक स्तर पर सरकारों, विकास ऐजेन्सियों, विकास योजना एवं नीतियों में लैंगिक मुद्दों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जा रही है। लिंग आधारित उत्पीड़न निःसंदेह मानव अधिकार का मुद्दा है, जो विकास की भयावाह स्थिति में है। इस समस्या पर विचार-विमर्ष करने एवं नई रणनीतियां बनाने के लिए वैष्विक स्तर पर सम्मेलन संपन्न हुए, जो इस प्रकार है-
1. प्रथम विष्व सम्मेलन-मैक्सिको, 1975ः इस सम्मेलन में वर्ष 1975 से 1984 को महिला दशक के रूप में घोषित किया गया तथा पंचवर्षीय योजनायें बनायी गयीं जिनमें óी शिक्षा लिंग भेदभाव मिटाना, महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाना, नीति निर्धारण में महिलाओं की भागीदारी, समान राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक अधिकार देने आदि पर बल दिया।
2. द्वितीय विष्व महिला सम्मेलन-कोपेनहेगन, 1980 इस सम्मेलन में महिलाओं के लिए राजनीति व निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं की कानूनी भागीदारी, महिलाओं के लिए कार्यालय कक्ष आयोग बनाना, सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए सभी को मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य संबंधी सेवाएं उपलब्ध कराना आदि लक्ष्य निर्धारित किये गये।
3. तीसरा विष्व महिला सम्मेलन-नैरोबी, 1985 इस संम्मेलन में विभिन्न देषों से प्राप्त की गई रिपोर्टों से ज्ञात हुआ है कि महिला दषक में निष्चित किये गये लक्ष्यों को प्राप्त करने में आंषिक सफलता प्राप्त हुई। इस संम्मेलन में महिला विकास के लिए प्रगतिषील रणनीति तैयार की गई तथा प्रत्येक देष को अपने विकासात्मक नीतियों के अनुसार अपनी प्रथमिकताएं तय करने का अधिकार दिया गया।
4. ‘‘पर्यावरण एवं विकास पर संयुक्त राष्ट्र संघ सम्मेलन 1992 (पृथ्वी षिख सम्मेलन) रियो डी जनेरियों में संपन्न हुआ। इस सम्मेलन के एजेन्डा कमांक 21 में लैंगिक मुद्दों को शामिल किया गया।
5. चैथा विष्व महिला सम्मेलन-बीजिंग, 1995 1995 का वियेना का समझौता ;।बबवतकद्ध और बीजिंग घेषणा तथा कार्यवाही हेतु प्लेटफार्म 1995 को अभी स्वीकृत किया है। महिलाओं को सामर्थ बनाने के लिए योजनाएं बनाना एवं 21 वीं सदी की वैज्ञानिक, तकनीकी, आर्थिक, सामाजिक आदि विकास संबंधी आवष्यकताओं का सामना करने के लिए साधन उपलब्ध कराना इस सम्मेनल के मुख्य उद्देष्य थे, जिससे सामाजिक स्थिति का निमार्ण होगा एवं महिलाओं की प्रगति को प्रोत्साहन प्राप्त होगा।
;कद्ध सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य:
सितम्बर 2000 में संपन्न संयुक्त सहस्त्राब्दी षिखर सम्मेलन में विष्व के अधिकांष देषों के नेताओं ने एक सामूहिक सहमति बनाकर दुनिया में मानव विकास संबंधी समयबद्ध एवं व्यवहारिक लक्ष्य को तय किये है, जो इस प्रकार हैः-
लक्ष्य विष्व स्तर के लक्ष्य
1. अत्यधिक गरीबी और भूखमरी का उन्मूलन: ऐसे लोग जो अत्यधिक गरीबी एवं भूखमरी से परेषान है, का वर्ष 2015 तक अनुपात आधा करना।
2. प्राथमिक षिक्षा की पहुंच सब तक सुनिष्चित करना: सभी बच्चे प्राथमिक षिक्षा का अधिकार पा सकें, यह आष्वस्त करना।
3. जेण्डर समानता एवं महिला सषक्तिकरण को बढ़ावा देना: लड़कियों को लड़कांे के समान ही हर क्षेत्र में अवसर देना।
4. बाल मृत्यु दर कम करना: पांच वर्ष से पूर्व अकाल मृत्यु का ग्रास बनाने वाले षिषुओं की संख्या को दो तिहाई तक कम करना।
5. मातृ-मृत्यु व मातृ-स्वस्थ्य में सुधार लानाः गर्भवती माताओं की प्रसव संबंधी मौतों को तीन चैथाई तक घटाना।
6. एच.आई.वी/एड्स मलेरिया एवं अन्य बीमारियों की प्रभावी रोकथाम हेतु हर संभव कदम उठाना।
7. पर्यावरण का विनाष रोकनाः दुनिया में पर्यावरण को विनाष से बचाने के बेहतर उपाय करना।
8. विकास हेतु विष्व स्तरीय गठबंधन विकसित करना: सरकारी एवं गैर-सरकारी, निजी व अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की साझेदारी सक्रिय तौर पर सुनिष्चित करना।
;मद्ध ग्लोबल जेंडर गैप प्रतिवेदन-2010:
सर्व विदित है कि भारतीय संविधान ने देष के सभी नागरिकों को जाति, धर्म, भाषा और लिंग के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव न किए जाने की गारन्टी दी है, किन्तु फिर भी आजादी के 67 साल के बाद भी आज उनकी स्थिति में आषानुकूल परिवर्तन नहीं आया है। इस रिपोर्ट में विष्व के विभिन्न देषों में महिलाओं की स्थिति का अध्ययन किया गया है। महिलाआंे की स्थिति का अध्ययन करने के लिए निम्नलिखित चार आधारों को सम्मिलित किया गया है-षिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक भागीदारी, राजनैतिक ताकत। इस अध्ययन में 134 देषों की सम्मिलित किया गया था। इस रिपोर्ट में भारत को 112 वें स्थान पर रखा गया है। भारत में राजनैतिक ताकत को छोड़कर अन्य तीन आधारों पर भारत की स्थिति अत्यन्त ही खराब है। भारत में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति जैसे शीर्ष पदों पर महिलाओं के चुने जाने, संसद स्थानीय निकायों में महिलाओं को आरक्षण दिए जाने तथा सभी नौकरियों में महिलाओं को आरक्षण दिए जाने के कारण राजनैतिक ताकत के आधार पर भारत की महिलाएं विष्व की अन्य महिलाओं की तुलना में 23 वें पायदान पर है, किन्तु स्वास्थ्य (132 वें स्थान), आर्थिक भागिदारी (128 वें स्थान) और षिक्षा (120 वें स्थान) के क्षेत्र में भारतीय महिलाओं की स्थिति समाधानकारक नहीं है। इसका तात्पर्य यह नही ंहै कि भारत में जेंडर में परिवर्तन नहीं हो रहा है। इस प्रतिवेदन में आइसलैण्ड, नार्वे, और फिनलैण्ड क्रमषः पहले स्थान पर है। इसके विपरीत पाकिस्तान, चाड और यमन अन्तिम स्थान पर है। फिलिपीन्स और अफ्रीका के छोटे से देष लिसोथो को इस प्रतिवेदन में क्रमषः नौवां और छठा स्थान मिला। इन देषों की सरकारों ने षिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी काम किया है। अमेरिका, पिछली रिपोर्ट में 31 वंे स्थान पर था, जो इस रिपोर्ट में 19 वें स्थान पर आ गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार फ्रांस के अनुसार फ्रांस पिछली रिपोर्ट में 25 वें स्थान पर था, जो इस रिपोर्ट में 46 वे स्थान पर पहुंच गया है। इस रिपोर्ट के आधार पर जापान और चीन को क्रमषः 94 वां और 61 वां स्थान मिला है।
2. राष्ट्रीय स्तर पर महिला सषक्तिकरण व विकास हेतु किये गये प्रयास:
;ंद्ध महिला सषक्तिकरण व विकास हेतु नीतियाॅं एवं उनका क्रियान्वयन:
ऽ 1974 में गठित समिति (टुवर्डस सोशल एक्वालिटी) सामाजिक समानता की और नामक कार्यक्रम के माध्यम से सामाजिक क्षेत्र में योजनओं का लक्ष्य महिलाओं का कल्याण न समझकर, उन्हें महत्वपूर्ण एजेन्ट का दर्जा दिया गया।
ऽ महिला शिक्षा प्रोत्साहन 1986 के माध्यम से महिलाओं की शिक्षा को उच्च प्राथमिकता दी गई है, बालिकाओं के दाखिले और उनकी पढ़ाई के लिए मुफ्त शिक्षा का प्रावधान, राष्ट्रीय स्तर के विद्यालयों में एक तिहाई छात्राओं के प्रवेश पर जोर दिया जा रहा है,
ऽ 1988 की श्रम शक्ति की रिपोर्ट के माध्यम से महिलाओं की स्थिति में सुधार की सिफारिश की गई, जिसमें महिलाओं के विकास संबंधी कार्यक्रम एवं नीतियाॅं बनाई जाती हैं जिसमें विशेषकर ग्रामीण एवं निर्धन महिलाओं पर जोर दिया जाता है ताकि वे समाज की मुख्य धारा से जुड सके।
ऽ केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय योजना 1988-2000 में बनाई जिसमें महिलाओं को राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने के लिए बहुउद्देशीय नीति बनाई गई।
ऽ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग व्दारा महिला अध्ययन केन्द्रों की स्थापना तथा विभिन्न शोध परियोजनाओं में महिलाओं से संबंधित परियोजनाओं को विशेष प्राथमिकता दी जा रही है।
;इद्ध महिला सषक्तिकरण व विकास हेतु संवैधानिक प्रावधान:
भारतीय संस्कृति एवं जीवन पद्धिति में मानव अधिकारों की प्रतिष्ठा प्राचीन काल से ही संस्थापित है। भारतीय संविधान के प्रावधानों ने अमानवीय स्थितियों को समाप्त कर सुव्यवस्थिति एवं सामाजिक सुरक्षा कायम करने का प्रयास किया, जिससे महिलाओं को संवैधानिक एवं कानूनी रुप से सशक्त बनाने हेतु स्वतंत्र भारत के सवंधिान में भी स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार देने का प्रावधान किया गया है, जो इस प्रकार हैः-
1. अनुच्छेद - 14 भारत के सीमा क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से अथवा विधियों से समान संरक्षण से, राज्य व्दारा वंचित नहीं किया जाएगा।
2. अनुच्छेद- 15 (1) राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान अथवा इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।
3. अनुच्छेद- 15 (3) इस अनुच्छेद में किसी बात से राज्य की स्त्रियों और बालकों के लिए कोई विशेष उपलब्धि बनाने में बाधा नहीं होगी।
4. अनुच्छेद- 16 (2) केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास अथवा इनमें से किसी के आधार पर किसी नागरिक के लिए राज्याधीन किसी नौकरी या पद के लिए विषय में न अपात्रता होगी, और न विभेद किया जायेगा।
5. अनुच्छेद- 19 (1) समान रुप से प्रत्येक नागरिक को शोषण तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकारी की गारन्टी देता है, अर्थात् सभी नागरिक अपने विचारों, विश्वासों और दृढ निश्चयों को निर्बाध रुप से तथा बिना किसी रोक टोक के मौखिक शब्दों व्दारा, लेखन, मुद्रण, चित्रण के व्दारा अथवा किसी अन्य ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए स्वतंत्र है।
6. अनुच्छेद- 21 प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार एवं किसी व्यक्ति की विधि व्दारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा उसके जीवन या उसकी वैयक्तिक स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जायेगा।
7. अनुच्छेद- 23 तथा 24 मानव के अवैध व्यापार, बेगार और अन्य बलात् श्रम, कारखानों आदि में बच्चों के नियोजन आदि के व्दारा शोषण के विरुद्ध संरक्षण प्रदान किया जाता है।
8. अनुच्छेद- 39 समान रुप से नर और सभी नागरिकों को जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो, पुरुषों एवं महिलाओं को समान कार्य समान वेतन, श्रमिकों, और महिलाओं का स्वास्थ और शक्ति तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो।
9. अनुच्छेद- 42 तथा 43-3 राज्य कर्मकारों को निर्वाह मजदूरी, काम की मानवोचित दशाएं, प्रसूति सहायता, शिष्ट जीवन स्तर और अवकाश का पूर्ण उपभोग और सामाजिक तथा सांस्कृतिक अवसर सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।
10. अनुच्छेद- 51 (3) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे तो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हो।
11. अनुच्छेद 73 में उपबन्ध है कि संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार उन विषयों तक होगा जिनके संबंध में संसद को विधि बनाने की शक्ति है। अतः संघ की कार्यपालिका शक्ति तब तक उपलब्ध है जब तक इस बुराई को समाप्त करने के लिए आवश्यक उपाय करने के लिए संसद कोई विधान अधिनियमित नहीं करती।
12. 73 वां एवं 74वां संविधान संषोधन: इस संषोधनों में महिलाओं को स्थानीय निकाय में 33 प्रतिषत आरक्षण का प्रावधान से किया गया, जिससे स्थानीय राजनीति में महिलाओं की सहभागिता हेतु आवसर प्राप्त हुए है और अब 50 प्रतिषत आरक्षण का प्रावधान है।
;बद्ध महिला सषक्तिकरण व विकास हेतु पंचवार्षिक योजनाओं के माध्यम से प्रयास:
पिछले 68 वर्षों से महिलाओं और बच्चों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सुनियोजित विकास किया जा रहा है, जिससे योजनागत परिव्यय में उतरोत्तर वृद्धि हुई है। पहली पंचवर्षीय योजना में जो दृष्टिकोण ‘‘कल्याण उन्मुख’’ था उसी दृष्टिकोण ने आगामी पंचवर्षीय योजनाओं में अपना स्वरूप बदल कर ‘‘विकास’’ और ‘‘सशक्तिकरण’’ कर लिया। भारत में पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से महिला सषक्तिकरण व विकास के लिए निरन्तर प्रयास किये जा रहे हैै, जो निम्न हैः-
1. पहली पंचवर्षीय योजना-1951-1956: इस योजना के अन्तर्गत महिलाओं का मुद्दा कल्याणोन्मुखी था केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड ने महिलाओं के लिए स्वैच्छिक क्षेत्र के माध्यम से अनेक कल्याणकारी आय आरम्भ किए। महिलाओं के लिए बनाए गए कार्यक्रमों को सामुदायिक विकास खण्डों के माध्यम से राष्ट्रीय विस्तार सेवा कार्यक्रमों के जरिए कार्यान्वित किया गया।
2. दूसरी पंचवर्षीय योजना-1956-1961: इस योजना के दौरान आधार भूत स्तरों पर महिला मण्डलों के गठन के लिए अनुकूल प्रयास किए गए ताकि कल्याणकारी योजनाओं के बेहतर कार्यान्वयन को सुनिश्चित किया जा सके।
3. तीसरी, चैथी, पांचवी और अन्य अंतरिम योजनाएं-1961-1974: इन योजनाओं के दौरान महिलाओं की शिक्षा को उच्च प्राथमिकता दी गई। मातृत्व और बाल स्वास्थ्य सेवा, बच्चों के लिए अनुपूरक पोषाहार तथा गर्भवती महिलाओं के लिए नर्सिंग संबंधी सेवाओं में सुधार के उपाय आरम्भ किए गए।
4. छठी पंचवर्षीय योजना-1980-1985: इस पंचवर्षीय योजना की अवधि को महिलाओं के विकास में मील का पत्थर माना जा सकता है। इस योजना के दौरान स्वास्थ्य, शिक्षा और महिलाओं के नियोजन पर त्रिपक्षीय बल के साथ एक बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाया गया।
5. सातवीं पंचवर्षीय योजना-1985-1990: इस योजना के दौरान भी महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक स्थिति में सुधार करने और उन्हें विकास की मुख्य धारा में लाने के उद्देश्य से महिलाओं के लिए विकास कार्यक्रम जारी रखे गए। इन विकास कार्यक्रमों में एक महत्वपूर्ण कदम ऐसे ‘‘लाभग्राही-उन्मुख कार्यक्रमों’’ की पहचान करना और उन्हें बढ़ावा देना है जिनके माध्यम से महिलाओं को प्रत्यक्ष लाभ दिया जा सके।
6. आठवीं पंचवर्षीय योजना-1992-1997: इस योजना के दौरान यह प्रयास किया गया कि महिलाएं विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले विकास के लाभों से वंचित न रह जाए। इस दौरान विकास के सामान्य कार्यक्रमों की कमी को पूरा करने के लिए विशेष कार्यक्रमों का कार्यान्वयन किया गया। रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा के तीन महत्वपूर्ण प्रमुख क्षेत्रों में महिलाओं को उपलब्ध करवाए जाने वाले लाभों की सतर्कतापूर्ण निगरानी रखी गई। महिलाओं को और समर्थ बनाया गया ताकि वे स्थानीय निकायों में सदस्यता के आरक्षण के साथ साथ विकास की प्रक्रिया में बराबर के हिस्सेदार और सहभागी के रूप में कार्य कर सकें।
7. नौवीं पंचवर्षीय योजना-1997-2002: इस योजना में सामाजिक आर्थिक परिवर्तन तथा विकास के एजेंट के रूप में महिलाओं तथा सामाजिक रूप से पिछड़े समूहों जैसे अनुसूचित जन जातियों और अन्य पिछड़े वर्गों तथा अल्पसंख्यकों का सशक्तिकरण करना, पंचायती राज संस्थानों, सहकारी समितियों और स्वं सहायता जैसे जन सहभागिता संस्थाओं को बढ़ावा देना और उनका विकास करना आदि है।
8. दसवीं पंचवर्षीय योजना-2003-2007: इस योजना का खाका सूचना, संसाधनों तथा सेवाओं तक महिलाओं की अपेक्षित पहुँच और लिंग समानता में वृद्धि करने के लक्ष्य को सुनिश्चित करने के लिए तैयार किया गया था।
9. ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना -2007-2012: ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में जेंडर सशक्तिकरण तथा समानता के उपाय अपनाए जाने का प्रस्ताव है। महिला एवं बाल विकास मन्त्रालय जेण्डर बजट तथा जेण्डर को मुख्यधारा में लाए जाने की प्रक्रिया को उत्साहपूर्वक लागू करेगा।
;कद्ध महिला सषक्तिकरण व विकास हेतु कानूनी प्रयास:
भारतीय संविधान एवं विभिन्न दंड सहिताओं में भी कई ऐसे नियम, विनियम एवं अधिनियम आदि बनाए गए हैं जिसकी सहायता से महिलाओं के हितों की रक्षा की जा सकती है। महिलाओं से संबंधित कुछ प्रमुख अधिनियम निम्नलिखित हैः-
1. मानवीय अधिकार: महिला-पुरूष के समान अधिकारों को निर्धारित करने वाला प्रथम अंतरराष्ट्रीय प्रयास संयुक्त राष्ट्र संघ की नियमावली है। इस नियमावली में कहा गया है कि समस्त मानव जाति को जनम से समान प्रतिष्ठा एवं अधिकार प्राप्त है। सभी महिला-पुरूषों को बिना किसी भेदभाव के समान स्वतंत्रता एवं अधिकार प्राप्त होने चाहिए। संघ के सदस्य देषों से यह अपेक्षा की गई है कि वे सभी महिला-पुरूषों को सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, नागरिक और राजनैतिक अधिकारों से आष्वस्त करें। स्त्रियों के प्रति भेदभाव को समान अधिकार और मानव प्रतिष्ठा का उल्लंघन माना है।
2. सामाजिक अधिकार: समाज में महिलाओं की स्थिति व दर्जा को सषक्त बनाने के लिए विवाह का अधिकार, तलाक का अधिकार, मातृत्व का अधिकार, दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, बाल विवाह अवरोध अधिनियम, 1929, पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, हिन्दू विवाह अधिनियम 1956, विषेष विवाह अधिनियम, 1954, मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1939, प्रसव पूर्व तकनीक निवारण अधिनियम, गर्भावस्था समापन चिकित्सा अधिनियम, 1971, स्त्री अषिष्ट प्रतिबंध अधिनियम, 1987, चलचित्र अधिनियम, 1952, हिन्दू अवयस्कता एवं संरक्षण अधिनियम, घरेलू हिंसा से महिलाओं ें का सरंक्षण अधिनियम, 2005 एवं 2006, कार्य स्थल पर यौन शोषण अधिनियम 1997, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न (बचाव व शिकायत निवारण विधेयक) कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न (बचाव, निषेध, निवारण अधिनियम) 2013 जैसे कई संबंधी अधिकार कानून द्वारा प्रदान किये गये है।
3. आर्थिक अधिकार: समाज में महिलाओं की स्थिति व दर्जा को आर्थिक रूप सषक्त बनाने के लिए हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, भारतीय दंड सहिता, 1860, मुसलमान उत्तराधिकार संबंधी विधि, मुआवजे का अधिकार, दण्ड प्रक्रिया 1973, कारखाना अधिनियम, 1948, संषोधन-1976, आपराधिक कानून अधिनियम, 1961 जैसे अधिकार प्रदान किये गये है, जिससे महिलाओं के शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक शोषण से बचाने में सहयक हो सके।
4. राजनीतिक अधिकार: भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1982: साक्ष्य का आसाधारण अधिनियम यह है कि सबूत का भार उस व्यक्ति पर होगा जिसके द्वारा आक्षेप लगाया गया हो और ऐसी ही स्थिति में महिलाओं पर होने वाला अत्याचारों के मामलों में भी थी। देष की संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को 1/3 यानी 33 प्रतिषत आरक्षण प्रदान कराने का विधेयक लाया गया है। हालांकि स्थानीय निकायों जैसे- पंचायती राज व्यवस्था व नगरपालिकाओं में यह व्यवस्था दो दषक पूर्व से प्रभावी है।
5. यौन अपराध संबंधी अधिकार: अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम, 1956, संषोधित 1978 व 1986ः ‘‘सप्रेषन आॅफ इम्मोरल ट्रैफिक इन वूमेन एंड गर्ल एक्ट’’ 1950 संषोधित 1978 व द इम्मोरल ट्रैफिक प्रीवेन्षन एक्ट 1986, अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम, 1956, से मिलता जुलता है।
6. अन्य अधिकार: सती निवारक अधिनियम, 1987 व राजस्थान सती निवारक अधिनियम, 1987: इस अधिनियम द्वारा सती प्रथा एवं उसकों महिमामण्डित करने से रोकने के लिए सख्त कदम उठाये गये। महिलाएं विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम के अंतर्गत विधिक सहायता पाने की अधिकारी है। संतान अपनी माता के नाम से भी जानी जाएगी। महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने हेतु राष्ट्रीय व राज्य महिला आयोग का गठन किया गया है।
;मद्ध राष्ट्रीय महिला नीति 2001:
2001 में राष्ट्रीय महिला उत्थान नीति बनाई गई जिसके माध्यम से ऐसा वातावरण तैयार किया जाता है कि महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार, सामाजिक सुरक्षा, मानव अधिकारों एवं महिलाओं के उन अधिकारों की सिफारिश करना जो महिलाओं को समाज में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में पुरुषों के समान हिस्सेदारी दिला सके।
1. महिलाओं के पूर्ण विकास के लिए सकारात्मक आर्थिक और सामाजिक नीतियों के माध्यम से एक ऐसे वातावरण का निर्माण करना ताकि वे अपनी पूरी संभाव्य शक्ति को समझने में समर्थ हो सके।
2. राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और सिविल सभी क्षेत्रों में पुरूषों के साथ समान आधार पर महिलाओं द्वारा सभी मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता कानून और वास्तव में उपभोग करना।राष्ट्र के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की सहभागिता और निर्णय करने में समान पहुंच।
4. स्वास्थ्य सुरक्षा, सभी स्तरों पर गुणवत्ता वाली शिक्षा, कैरियर और व्यावसायिक मार्गदर्शन, रोजगार, समान पारिश्रमिक व्यवसाय संबंधी स्वास्थ्य और सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा और सरकारी पद आदि में महिलाओं की समान पहुंच।
5. महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के भेदभाव समाप्त करने के उद्देश्य से न्याय प्रणाली को सुदृढ़ बनाना।
6. पुरूष और महिला दोनों को शामिल करने और सक्रिय सहभागिता द्वारा सामाजिक मनोवृत्तियों और सामुदायिक प्रथाओं में परिवर्तन लाना।
7. जेण्डर दृष्टिकोण को विकास की प्रक्रिया की मुख्य धारा में लाना।
8. महिलाओं और बालिकाओं के प्रति भेदभाव और सभी प्रकार की उत्पीड़न को समाप्त करना।
9. सभ्य समाज, विशेष रूप से महिला संगठनों के साथ साझेदारी बनाना और उसे सुदृढ़ करना।
;द्धि महिला सषक्तिकरण व विकास हेतु विविध संस्थाओं के प्रयास:
1. राष्ट्रीय महिला आयोग:
भारत सरकार ने 1992 में राष्ट्रीय महिला आयोग को गठन किया था, जो महिलाओं से संबंधित संवैधानिक प्रावधान एवं कानूनी सुरक्षा के अधिकारों को लागू करवाने की सिफारिश करता है तथा अपने सुझाव भी देता है। इस आयोग को संवैधानिक शक्तियां उपलब्ध है, जो राष्ट्रीय महिला आयेाग की अहम् भूमिका है, जो राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के लिए कार्य करती है। इस अयोग के कार्य और इसके उत्तरदायित्व अत्यंत ही व्यापक है। महिलाओं की रक्षा से सम्बंधित तमाम पहलुओं और सषक्तिकरण प्रक्रिया को महिला आयोग के दायरे में लाया गया है जिसके आधार पर महिलाओं के समस्त अधिकारों की रक्षा करने का प्रयास किया जाता है। महिला सषक्तिकरण में भारत के राष्ट्रीय महिला आयोग की अहम् भूमिका हैं। श्रीमती ललिता कुमारमंगलम वर्तमान में राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष है।
2. महिला एवं बाल विकास विभागः
महिलाओं और बच्चों के विकास को वंाछित गति प्रदान करने के लिए 1985 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन महिला एवं बाल विकास विभाग का गठन किया गया था यह विभाग महिलाओं एवं बच्चों के विकास की देख-रेख के लिए एक नोडल एजेंसी के रूप में काम करता है। इस क्षेत्र में काम करने वाली सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाओं में समन्वयन का काम भी यह विभाग करता है। राष्ट्रीय महिला एवं बाल विकास विभाग पर महिलाओं तथा बच्चों के विकास के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की यूनिसेफ तथा यूनिफेम जैसी संस्थाओं के साथ समन्वय की जिम्मेदारी है इसके अतिरिक्त इस विभाग-अनैतिक व्यापार निषेध अधिनियम, 1959, स्त्री अशिष्ट निरूपण निषेध अधिनियम, 1986, दहेज निषेध अधिनियम, 1961, सती प्रथा निरोधक अधिनियम, 1987, शिशु दुग्ध विकल्प, दुग्धपान बोतल एवं शिशु आहार उत्पादन, आपूर्ति और वितरण अधिनियम, 1992, राष्ट्रीय महिला एवं बाल विकास विभाग अपने सभी दायित्वों का निर्वहन करता है।
3. राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान:
यह संस्था सामाजिक विकास में कार्य करने वाले स्वैच्छिक संगठनों को प्रोत्साहन के साथ-साथ काम करने हेतु उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराती है समन्वित बाल विकास कार्यक्रम का संचालन करने वालों को प्रशिक्षण देने वाला नई दिल्ली स्थित यह अग्रणी संस्थान है विभिन्न एजेंसियों, शिक्षा संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, स्वयंसेवी संस्थाओं से समन्वय का कार्य यह संस्थान बखूबी कर रहा है संस्थान के चार क्षेत्रीय केन्द्र हैं जो बंगलौर, गुवाहाटी, लखनऊ तथा इंदौर में है।
4. केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्डः
केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड का मुख्य कार्य समाज कल्याण तथा महिला सशक्तीकरण के क्षेत्र में विशेष प्रयास करना है। इसकी स्थापना अगस्त 1953 में हुई। यह देश का प्रथम संगठन है जो इस दिशा में सर्वाधिक प्रयास कर रहा है बोर्ड द्वारा लागू किये गये कार्यक्रमों में जरूरतमंद महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम, महिलाओं और बालिकाओं के लिए शिक्षा के सघन पाठ्यक्रम और व्यावसायिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम, ग्रामीण तथा निर्धन महिलाओं में जागरूकता बढ़ाने वाली परियोजनाएं, पारिवारिक परामर्श केन्द्र/स्वैच्छिक कार्यवाही ब्यूरो, बच्चों के लिए अवकाश शिविर, सीमावर्ती क्षेत्रों में कल्याण प्रसार योजनाएं और बालवाड़ियां, कामकाजी महिलाओं के लिए शिशु-सदन और हाॅस्टल की सुविधा उपलब्ध कराना शामिल है।
5. राष्ट्रीय महिला कोष:
1993 में आरम्भ की गयी इस योजना का उद्देश्य आय अर्जन हेतु सक्षम बनाने हेतु महिलाओं को लघु ऋण उपलब्ध कराना है। यह ऋण मुख्यतः डेयरी, कृषि, दुकान, हस्तशिल्प आदि के लिए उपलब्ध कराया जाता है। इस कोष से कोई महिला जिसके परिवार की वार्षिक आमदनी 11000 रूपये प्रतिवर्ष (ग्रामीण क्षेत्र) तथा 11800 रूपये प्रतिवर्ष (शहरी क्षेत्र) हैं, आठ प्रतिशत वार्षिक ब्याज पर अपनी आर्थिक गतिविधियां जारी रखने हेतु ऋण ले सकती हैं। महिलाओं अथवा महिला समूहों को यह ऋण स्वयं सहायता समूहों, गैर-सरकारी संगठनों, महिला विकास निगमों, महिला सहकारी समितियों के माध्यम से उपलब्ध कराया जाता है।
निष्कर्ष व परिणाम:
21 वीं सदी महिलाओं की सदी है। यही परिवर्तन की आहट है कि महिलाएं सफलता के शिखर पर आरुढ़ हो रही हैं। कामयाबी के साथ उनकी सामाजिक व आर्थिक तस्वीर लगतार बदल रही है समाज के सभी पुरुष वर्चस्व वाले क्षेत्रों में महिलाओं ने शानदार प्रवेश किया है। वर्तमान स्थिति में नारी ने जो साहस का परिचय दिया है वह आश्चर्यजनक है। समाज के हर क्षेत्र में उसका परोक्ष-अपरोक्ष रूप से प्रवेश हो चुका है आज तो कई ऐसी संस्थायें है जिन्हेें केवल नारी ही संचालित कर रही है जिस नारी को मध्य युग में बेड़ियों से जकड़ दिया गया था उस युग से आज तक उसके संघर्ष की कहानी बड़ी ही लंबी एवं चुनौतीपूर्ण है, परन्तु वह सफल हो रही हैं और आगे भी सफल होगी यह दैवीय योजना है। चाहकर भी कोई उसके बढ़तें कदमों को थाम नहीं सकता है। यही नारी की भवितत्वयता है और यह अत्यन्त सुखद भी है।
सुझावः
यह कहने में कोई अतिषयोक्ति नही होगी कि इतना आगे बढ़ने के बाद भी सच्चाई यह है कि हजारों वर्षों की यह मान्यता कि महिला को पुरुष के संरक्षण की आवश्यकता होती है परिवर्तित नहीं है और इस कारण वह दोहरे मार से दबी रही है। आज भी उसको समाज में दोयम दर्जे का स्थान मिला है आज भी उसको अपने अधिकारों के लिये लड़ना पड़ता है और उसके साथ समय मिलने पर अत्याचार, शोषण, अनाचार कर रहा है उसकी जब चाहे तब बेईज्जती करने से नहीं चूक रहा है उसको नारी का हर क्षेत्र में आगे बढ़ना हजम नहीं हो रहा है। अतः इस विषय पर शासन, स्वयं सेवी संगठनों, राजनेताओं, षिक्षाविदों, समाज सेवकों एवं जनतंत्र को अभी और चिन्तन एवं समाज (स्त्री-पुरूष दोनों को) को मानसिकता बदलने की आवष्यकता है।
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Received on 20.05.2016 Modified on 16.06.2016
Accepted on 15.07.2016 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 4(3): July-Sept., 2016; Page 180-188.